Tuesday 27 September 2016

बहुत हो चूका शोर, अब सूरत बदलनी चाहिए |

माननीय प्रधानमंत्री जी मै आप की सारी बातों का समर्थन करता हूँ, जो आप कहते है, करते है, लेकिन एक बात बताइए की आप की सरकार और दूसरी सरकारों में क्या फर्क है, वे भी आप की तरह ही बात करते थे, फर्क सिर्फ इतना है की आप अपनी बात ज्यादा असरदार तरीके से करते है | आप  केरल में जो बोलते है, सही है, लेकिन करते नहीं, उसकी जिम्मेदारी नहीं  लेते | सुषमा जी UN में जो कहती है, वो भी सही है, लेकिन किया क्या, सिर्फ कहा, बस हमारी जिम्म्मेदारी ख़तम | और अगर ख़तम तो फिर चुनाव के समय क्या था | आज आपने पुरे विश्व का सफ़र किया | लेकिन आप के समर्थन में कितने है, जो पाकिस्तान को अलग थलग कर दे | इसका जवाब शायद आप ना दे पाए | लेकिन इसका जवाब मैं दे सकता हूँ,  जवाब है कोई नहीं | फिर आप की निति और दूसरों की विदेश निति में क्या अंतर | वो भी तो यही कर रहे थे भाषण, और भी बस भाषण | ध्यान रखिये आप बहुत अच्छे से तैयारी करे, खूब मेनहत करे और परीक्षा में रिजल्ट आया तो फेल | अपना पिता जिसने हमें पैदा किया है वो भी हमारी तैयारी पर शक करेगा | फिर हम तो पडोसी है | जब आप कहते है, शहीदों की शहादत बेकार नहीं जाएगी, या हम क़ुरबानी याद रखेगें तो क्या | अरे याद तो वो बात भी रक्खी जाती है, जब आप किसी पराई स्त्री से छेड़ छाड़ करते है या जब आपकी घर की महिला के साथ कोई अभद्र व्यव्हार करता है | दोनो ही बातों में सम्मान नहीं है ना आपकी बात में और ना ही मेरे उदाहरण में | जब आप को पता चलता है की आप कुछ नहीं  कर पा रहे है, तो आप सिन्धु नदी समझोते की बात  करने लगते है | ये बात को  घुमाने का एक तरीका का है और कुछ नही | चलिए मैं एक बात आप से और  आपके सरकार में शामिल सभी नेताओ मंत्रियों से पूछता हूँ की अगर आप के घर से कोई भाई बेटा भी  कश्मीर और सरहद पर मर जाता तो क्या तब भी आप सब इन्ही शब्दों का प्रियोग करते | भाई साहब जब आप के घर से कोई  मर  जायेगा सड़क पर भी और  मैं यही शब्द आप लोगो से आकर कहूँगा तो शायद आप मुझे गोली  मार देंगे और  नहीं  मारेगें तो ये हाल तो कर ही देंगे की मैं किसी  काबिल ना रहूँ |
माननीय प्रधानमंत्री जी दूसरों को उपदेश देना शायद इस दुनिया का सबसे सस्ता और आसान काम है | लेकिन जब अपने पर गुजरती है तो इन्सान त्राहिमाम त्राहिमाम कर उठता है | क्या आप के पास इतनी हिम्मत है की आप सिन्धु नदी समझोता रद्द कर  सके | जवाब है नहीं | आज आप बहुमत में है और एक बिल पास नहीं करवा पा रहे है, कहते है की, राज्य सभा में आप को बहुमत नहीं है | जब की हाईस्कुल की किताबों में पढाया जाता है की, लोक सभा अगर कोई बिल पास कर के राज्य सभा में  भेज दें तो राज्य सभा की औकात नहीं है की उस बिल को रोक दे | और आप  बहुमत का रोना रो रहे है | आप की हालत भगवान श्री सत्यनारायण की कथा में उस बनिए की तरह है जो हर बार कथा सुनने के समय कहता है की मेरा ये काम हो, जायेगा तो कथा सुनुगा, लेकिन काम हो जाने पर फिर अगला बहाना | आपकी पिछली सरकार राम मंदिर के मुद्दे पर आई थी | लेकिन किया कुछ नहीं, वही घिसा पिटा भाषण बहुमत नहीं है | न्ययालय के आदेश का पालन करेगे | तो फिर भैया पहले बोला क्यू | पहले श्री राम के नाम की दलाली और अब काला धन /पकिस्तान/ चीन के नाम की दलाली |
माननीय प्रधानमंत्री जी याद रखियेगा जब लोगों ने वाजपेई को नहीं छोड़ा तो तुम्हे क्यू छोड़ देंगे | लोगो को इस बात बात का अहसास मत दिलवाओ की यार  इससे तो अच्छी कांग्रेस ही थी | आप को परिवर्तन के लिए  चुना गया है  ना की परिवर्तित होने के लिए या सिर्फ मन की बात करने के लिए |
माननीय प्रधानमंत्री जी आज देश की समस्या आपकी समस्या है और देश में ऐसा कौन है  जो एक पूर्ण बहुमत से आई सरकार को आँख दिखा दे | और अगर वो आँख दिखा रहा है तो सिर्फ इसका एक कारण है की हम सिर्फ बकैत हो गए है आज पडोसी के  हर पानी नहीं आ रहा है  वो  इसके  लिए  आप को जिम्मेदार मान रहा है | वो ये कह सकता है क्यू की उसे अपनी नपुंसकता छिपाने के लिए मोदी जी का सहारा चाहिए | वो अपनी जिम्मेदारियों को आप पर  थोपना चाहता  है | वह ऐसा  कर  सकता है क्यू की उसे पता है की आप पलट कर वार नहीं करेगे | बचपन में एक कहानी सुनाई जाती थी की, एक हाथी बाजार में चला जाता है और  कुत्ते उस भोकते रहते है लेकिन ये  अधूरी कहानी है | पूरी कहानी  ये है की जब हाथी कुछ नहीं करता तो कुत्तों की हिम्मत बढ़ जाती है और वो सब मील कर उस हाथी  को नोचने लगते है | हाथी इन सब से दुखी हो जाता है उसे दुखी देख कर गधा उसे समझाता है की जरुरत से ज्यादा शराफत कायरता की निसानी है | हाथी  को ये  बात समझ में  आ जाती है और  अगले दिन जब वो बाजार  से गुजरता है तो  कुत्ते फिर उस पर  कूदते है लेकिन हाथी इस बार  सावधान है |  वो एक कुत्ते को पैर से दबाता है दुसरे को सुढ से पटकता है | ये देख सारे कुत्तों को  अपनी औकात पता चलती है | उस दिन के बाद कोई  कुत्ता उस पर नहीं भोक्ता बल्कि उसके आने पर  रास्ता छोड़ देतें है | यहाँ  आप  की स्थिति उस हाथी जैसी है और आप चाहे तो मुझे गधा समझ सकते है | क्या आप ने कभी सोचा है  की आज चीन के लिए  आपके पास कोई  पोलिसी नहीं है | वो देश पाकिस्तान के कंधे पर बन्दुक रख कर  भारत पर गोली दाग रहा है | इतने देशों की यात्रा की लेकिन कोई साथ नहीं | तो फिर काहे की संबंधों की नौटंकी | वैसे आप मुझसे ज्यादा समझदार है और मुझसे ज्यादा काबिल लेकिन एक बात कहना चाहूँगा, की जिसके शरीर पर जख्म होता है, इलाज भी खुद  करता है | फिर पडोसी कितना भी अच्छा क्यू ना हों वो सिर्फ उपदेश दे सकता है या हाल चाल पूंछ सकता है | आप  अलगाववादी नेताओ का इलाज नहीं  कर  सके | कश्मीर में जो भी समस्या है वो  इनकी वजह से है | आप दाउद का भी कोई इलाज नहीं कर  सके | पाकिस्तान से ज्यादा शुभ चिन्तक तो उसके भारत में बैठे है | अरे उसे तो छोडिये आप शत्रुघ्न सिन्हा पर लगाम नहीं लगा सके, तो आप  कैसे  सोच कर बैठे है की, आप दूसरों  से बेहतर प्रधान मंत्री है | आप और मनमोहन सिंह में क्या  फर्क आप  बोलते  है और वो  कुछ नहीं बोलते बाकि सब समान | और याद रखिये मनमोहन की पहली सरकार में भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे थे वो  दूसरी बार में थे | लोगों को ये सोचने पर मजबूर मत कीजिये की मोदी देश के प्रधानमंत्री इसलिए नहीं है की वो सर्वश्रेष्ट है बल्कि इसलिए है की जनता के पास कोई विकल्प नहीं था | और अगर परिस्थितियां स्वम से समझ नहीं आती तो इंदिरा का कार्यकाल देख लीजिये उनके शासन में जंग और खालिस्तान का मुद्दा उठा और उसका हल भी उन्होंने ही निकला | याद रखिये हमारे बाद दुनिया हमें किस रूप में याद रखती है ये महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण सिर्फ इतना है की हम अपने आपको कैसे याद रखवाना चाहते  है |
माननीय प्रधानमंत्री जी इंदिरा, लालबहादुर या वाजपेई ने  जो किया, उस पर राजनीती में तो गलत कहा  जा सकता है लेकिन वो जनता की नजर में हीरों है | और रहेंगे भी | तो सवाल ये है की  आप  कैसे  जीना या याद रखना चाहते है | मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ की बहुत हुई बाते, अब जख्म का  इलाज होना चाहिए ना की इस इन्तेजार में  बैठा जाये  की  हमारे प्यारे पडोसी उस पर  दवा लगायेगें | क्यू की जख्म नासूर हो  गया है, जैसे हमने पंजाब से खालिस्तान का नाम मिटाया  वैसे ही कश्मीर से  भी पाकिस्तानी कश्मीर का नाम मिटना चाहिए | नहीं तो एक काम की सलाह है की आप वापस  गुजरात चले जाये और  हमें आपने  हाल पर  छोड़ दे | कहीं ऐसा ना हो की देश जाते जाते गुजरात भी चला जाये |
शुभकामनाओ के  साथ आपके द्वारा की  गई वास्तविक प्रतिक्रिया के इन्तेजार में |

दीप           

Tuesday 13 September 2016

मेरी इंजीनियरिंग के दिन

ये कहानी है उस दौर की..
जब कॉलेज में २ कंपनियां आके चली गयीं थी...
और मेरा प्लेसमेंट अभी नहीं हुआ था..
हौसला बढ़ाने के लिए घर पर माँ थी ..
और महीने में एक बार फोन करके पैसे हैं कि नहीं पूछने वाले पिताजी भी..
पर मैं उन्हें अपनी मनोदशा बताना नहीं चाहता था ..
हाँ एक और भी तो थी मेरे पास..
जो सब जानती थी .
जो हिस्सा रही है इस सफर का..
2004
से 2008 तक..
कहानी अब 2005 में हैं..
जब इंजीनियरिंग कॉलेज में एक साल पूरा हो चूका था..
और तमाम रैगिंग और शुरूआती इंटेरक्शंस के बावजूद..
मैं किसी से भी ज्यादा घुल मिल नहीं पाया था..
वो थी मेरे ही आस पास.
कई बार बुक बैंक में नज़रें मिली..
कई बार एक ही टेबल पर आमने सामने पढ़े..
नेस्कैफे पर एक ही ग्रुप में खड़े हो कॉफी पी थी..
पर मैं सिर्फ उसका नाम ही जान पाया था..
और ये भी श्योर नहीं था ..कि वो भी मुझे नाम से जानती है क्या....
मुझे याद है...
मेरी और उसकी बॉन्डिंग पहली बार..
एनुअल कॉलेज फेस्ट में हुई थी..
जब हम दोनों ही नीली जीन्स और ग्रे टी शर्ट में कॉलेज आये थे..
और कॉलेज रॉक बैंड के परफॉर्म करने पर..
भीड़ से पीछे की तरफ खड़े हो..
बाकी लोगों को सर हिलाते और नाचते देख रहे थे..
शायद मन था भीड़ में शामिल होने..
शायद झिझक भी थी..
इसीलिए हर बीट पर..दोनों के दाहिने पैर टैप कर रहे थे..
तब तुमसे पहली बार बात हुई थी..
मैंने सीधे तुम्हारा नाम ही लेके बातें शुरू की थी..
और उन लोगों पे जोक मारा था..
जो नाच रहे थे हैड बैंगिंग करते हुए..
तुम खिलखिला के हंसी थी..
फिर तुमने मुझसे पूछा..
मैं रेगुलरली बुक बैंक क्यों नहीं आता हूँ..
और मैंने जवाब दिया था...बस यूं ही..
तुम फिर से मुस्कुराईं थीं..
उस दिन हमने फोन नंबर भी एक्सचेंज किये..
और फैस्ट ख़त्म होने के बाद..
मैं इधर उधर की बातें करता हुआ..
तुम्हारे साथ वाक् करते हुए तुम्हारे हॉस्टल के गेट तक गया था..
तुम मेरे फ़ालतू जोक्स पर भी हंसती रहीं थीं..
उस शाम मैंने सिगरेट नहीं पी..
और रात में तकरीबन १२:३० बजे..
अपने नोकिआ ११०० से "It was nice talking to you " मैसेज किया था..
फ़ौरन मेरे फोन की बीप बजी..और मैंने उत्सुकता से मोबाइल देखा..
वो मैसेज की डिलीवरी रिपोर्ट थी..
उन दिनों मोबाइल में मैसेज बीप बजना..
एक अलग ही अहसास होता था..
२ मिनट बाद ही तुम्हारा रिप्लाई आया.."same here :) "
फिर अगले दिन मैं अपने रूम पार्टनर की प्रेस की हुई शर्ट पहन कॉलेज पहुंचा था..
और हमारी बातों के सिलसिले उस दिन से शुरू हो गए थे..
कैंटीन से लेके..कॉफ़ी तक..
और लैब से लके बुक बैंक तक..
हम साथ ही रहते..
और कॉलेज से लौटने के बाद..
मोबाइल पर मैसेज..
मुझे याद है.. तुम कैसे पढ़ते वक़्त अपनी उँगलियों में पैन घुमाया करती थीं..
और न्यूमेरिकल सॉल्व करते वक़्त कैसे अपने बालों की लट को कान के पीछे ले जाया करतीं थीं..
तुम कुछ पूछ न लो इस डर से मैं भी पहले से ही पढ़ के आया करता..
और बुक बैंक में नज़रे बचा कर बस तुम्हे देखता..
मुझे आज तक याद है..
कि कैसे मैं कोशिश करता था कि फ़ोन मेमोरी फुल होने पे..
मैं तुम्हारे मैसेज डिलीट न करूँ..
कभी सिम में ट्रांसफर करूँ..
तो कभी ड्राफ्ट बना के सेव कर लूँ..
वो साथिया की रिंगटोन जो तुमने सेंड की थी..
वो तब तक मेरी रिंगटोन रही..
जब तक वो फोन मेरे पास रहा ..
मुझे याद है कि कैसे तुम कहतीं थी..
कि हर कैसेट में दूसरा गाना बैस्ट होता है..
मैं नहीं भूल सकता वो शाम..
जब हम पहली बार फिल्म देखने गए थे..
मैंने दोस्त की CBZ उधार ली थी..
और फिल्म से लौटते वक़्त बस अड्डे के पास गोल गप्पे खाए थे..
उस शाम जब मैंने तुम्हे हॉस्टल छोड़ा था..
तब कैसे हॉस्टल की एंट्री के पास..
हमने घंटों बेवजह की बातें की थीं..
तुम अंदर नहीं जाना चाहती थीं..
और मैं भी वापस नहीं जाना चाहता था..
बातों बातों में रात का 1 बज गया था..
उस दौर में नींद भी कहाँ आती थी..
मैं नहीं भूल सकता वो अनगिनत बार जब तुमने कहा था..
कि मेरे जैसे लोग इस दुनिया में रेयर हैं..
और कैसे तुम लकी हो मुझ जैसा दोस्त पाके..
अगले ३ साल हम साथ साथ ही थे..
कई बार लड़े..पर हर बार या तो तुमने या मैंने एक हफ्ते की ख़ामोशी के बाद..
बात करने की शुरुआत कर ली..
आखिरी सेमेस्टर से पहले तक सब ठीक ही चला..
तुम कैट की तैयारी करती रहीं..
और मैं कैंपस प्लेसमेंट की..
याद है जब कंपनी आने का नोटिफिकेशन हम दोनों ने साथ ही नोटिस बोर्ड पे देखा था..
और कंपनी क्रिटेरिया में थ्रू आउट फर्स्ट क्लास माँगा था..
मैं उदास हो गया था ये देख..और तुम्हारी आँखों में चमक थी..
तुमने कहा था कि चलो अच्छा है कम्पटीशन कम हो जाएगा..
पर तुम मेरी आँखें नहीं पढ़ पायीं थी..
ख़ैर मैंने भी कभी बताया नहीं..
कि कैसे बारहंवी के पेपरों में..
मेरा अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था..
और मैं कम्पटीशन से बिना फेल हुए ही बाहर हो गया..
जिस दिन इंटरव्यू हुए..
मैं कॉलेज ही नहीं आया..
तुम्हें बेस्ट ऑफ़ लक का मैसेज किया..
और बैठा रहा हॉस्टल के कमरे में..
शाम को तुम्हारा मैसेज आया..सिलेक्टेड..
मैंने congrats रिप्लाई किया..
और तुमने नाम गिनाये कि किस किस का सिलेक्शन हुआ है..
२ दिन बाद तुम्हारे साथ सेलेक्ट हुए लोगों की पार्टी कि खबर भी ऐसे ही उड़ते मिली..
अगली कंपनी आई..
उसमे भी वही क्रिटेरिया था..
मैं अब निराश हो चला था..
और तुम्हारे भी दोस्त बदल चुके थे..
अब तुम्हारे पास एक नया ग्रुप था..
वो लोग जो एक साथ उस कंपनी में प्लेस हुए थे..
और मेरे आस पास..
मेरी ही तरह हारे लोग..
जो एजुकेशन लोन के तले दबे थे..
या अपने परिवार के सपनों तले..
आखिरी सेमेस्टर था..
इस बार तुम्हारे बुक बैंक के साथी भी बदल गए थे..
और मैंने भी बुक बैंक आना बंद कर दिया था..
अब मैसेज टोन भी कम ही बजती थी..
और साथिया वाली रिंगटोन मैंने सिर्फ तुम्हारे नंबर पर ही असाइन कर दी थी..
एक awkward सी ख़ामोशी आ चुकी थी हम दोनों के बीच..
मैं कई बार तुम्हे फोन करके रोना चाहता था..
अपनी असफलता की कहानियां सुनना चाहता था..
कई बार नंबर डायल करके रिंग जाने से पहले मैंने काट दिया..
वो अँधेरे के दिन थे..
फाइनल एग्जाम वाले दिन हम लगभग एक अजनबी की तरह ही मिले..
तुमने पिछले ३ साल याद किये..
और मुझे बताया कि कैसे I have been the best person you have ever met ..
हमने एक और बार कॉफ़ी साथ पी..
जो संभवतः हमारी आखिरी कॉफी थी..
मैं उस शाम जयदतर खामोश ही रहा..
जब कॉफ़ी ख़त्म हुई तो मैंने पूछा..
चलो हॉस्टल छोड़ देता हूँ..
तुमने मुस्कुरा कर कहा..नहीं..
अभी किसी के साथ मूवी का प्लान है..
उस "किसी" का अंदाजा मुझे भी था..
क्यूंकि वो नेस्कैफे के पीछे से शशांकित भाव से मुझे देख रहा था..

पर जिसकी वक़्त ने ली हो..वो दर्द से कराह भी नहीं पाता..
मैं चुप ही रहा..
और तुमने जाते जाते कहा ..
"Be in touch "
......................................................................................
आज अचानक बंगलौर में कोरमंगला में कॉफ़ी पीते तुम दिखीं..उसी "किसी" के साथ...और तुम्हारे सामने वाली टेबल पर बैठा मैं..अपने 3 और आईआईएम बैचमेट्स के साथ...2004-2008 सब आँखों के सामने तैर गया....तुम देख के भी खामोश रहीं..और मैं बिना किसी बात टेबल पर हाथ मार खिलखिला के हँसा... ;)

Friday 8 July 2016

औरत मतलब कपडा ?

जनता दल युनाइटेड के एक नेताजी हैं। अली अनवर नाम है सर का। बहुत ही संवेदनशील इंसान हैं। संवेदनशील इसलिए हैं क्योंकि वो हवा की रुख से अलग भी अपनी बात रखने की कुव्वत रखते हैं। जब देश इशरत जहां को आतंकवादी कह रहा था तब इन्होंने किसी बहस की परवाह किये बिना उसे बिहार की बेटी बताया था। आज इनसे मीडिया की बातचीत हुई और इन्होंने अपने अंदाज़ में स्मृति पर कह दिया कि – उनको भी कोई खराब विभाग थोड़े न मिला है, तन ढकने वाला विभाग मिला है। इस टिप्पणी के साथ उनकी कुटिल मुस्कान ने बता दिया कि वो कितनी तमीज़ और इज़्ज़त के साथ ये बात कहना चाह रहे थे। हमारे गली-सड़क-मोहल्ले से लेकर राजनीतिक गलियारों तक में औरतों को कब कैसे कितनी इज़्ज़त देनी है, ये लोग खुद-ब-खुद तय कर लेते हैं। महिलाओं को बदन और कपड़े से उठकर देख पाना अब भी हमेशा संभव नहीं हो पाता।
अली अनवर ने इशरत को बिटिया बता दिया क्योंकि ये उनकी पार्टी और राजनीति के हक में था। फिर अनवर साहब ने स्मृति के लिए ‘तन ढंकने वाला मंत्रालय’ कहा क्योंकि ये भी उनकी पार्टी और राजनीति के पक्ष में था। इशरत जहां का वोट बैंक की तरह इस्तेमाल हो सकता है, स्मृति ईरानी से इन्हें कुछ भी नहीं मिल सकता। इस बीच एक औरत की अस्मिता कुचली जाती है, बचा रह जाता है उसका तन-बदन-जिस्म और कपड़ा। जिस मुस्कुराहट के साथ अली अनवर ने यह टिप्पणी की, वैसी मुस्कान के साथ गली-चौराहे पर खड़े आवारे लड़के लड़कियों पर तंज कसते हैं तो लड़कियां पलटकर जवाब नहीं देतीं, सिर घुमाकर चली जाती हैं। उनकी मां ने सिखाया होता है कि ऐसी बातें इग्नोर करनी हैं। इससे उन लड़कों का मनोबल बढ़ता है और उनकी वो घटिया मुस्कान बनी रहती है।
ऐसी टिप्पणी की जब आदत पड़ जाती है तो इंसान न चाहते हुए भी अपना कद और पद भूल जाता है और वो संसद पहुंचकर भी वही चौराहे वाला लड़का बना रहता है। अली अनवर से शायद स्मृति कुछ न पूछें लेकिन मैं ज़रूर जानना चाहूंगी कि इशरत को बेटी कहने वाले के लिए स्मृति क्या हैं? एक सहकर्मी को तन-बदन से ऊपर उठकर कब देखा जा सकेगा? औरतों के लिए ऐसे घटिया शब्द और टिप्पणियां कबतक मज़ाक बने रहेंगे? ऐसे शब्दों से कहां तक रसास्वादन किया जा सकेगा?

Sunday 26 June 2016

सुल्तान के लिए सलमान का रेप

मुझे ये समझ में नहीं आता की जिस देश में नरेन्द्र मोदी का विरोध हो सकता है | आमिर खान, शाहरूख खान का विरोध हो सकता है | उस देश में सलमान खान का विरोध क्यू नहीं हो सकता | और लेकिन हम सलमान का विरोध नहीं कर सकते क्यू की उन्होंने लोगों को अपनी महगी गाड़ी से कुचल कर मारा | दारू पीकर बवाल किया | एक दर्जन से भी ज्यादा महिलाओ के साथ सम्बन्ध रखे | हिरणों का शिकार किया | पुलिस कास्टेबल को पागल खाने भिजवाया , वकील ख़रीदे , कानून ख़रीदा, मुर्ख लोगो को बेवजह की गीसीपीटी कहानियों वाली पिक्चर दिखाई | ऐसे में अगर वो अपनी फिल्म का प्रचार करने के लिए ये कहे की फिल्म की शूटिंग होते समय उनको ऐसा लगता था की जैसे उनका रेप हुआ है | तो कोई बात नहीं हम उसका विरोध नहीं कर सकते |क्यू की वो तो भगवान हो गए है | लेकिन मै प्रार्थना करता हूँ की एक की बार उनका रेप होही जाय ताकि उन्हें ये पता चले की रेप होने के बाद कैसा लगता है|

Tuesday 21 June 2016

ट्रेलर समीक्षा मोहन-जो-दारो

मोहनजो दारो ट्रेलर जो मैंने देखा और सोचा ---

ट्रेलर का पहला दृश्य हमें इतिहास की किताब का पहला अध्याय याद दिलाता है. इसमें सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान मिली बस्ती का ग्राफिक्स है, वैसा ही जैसा हम किताबों में देखते आए हैं. किताबों में पढ़ा हुआ फ़िल्मी परदे पर देखना रोमांच पैदा करता है लेकिन बस इसी दृश्य तक. इसके बाद ट्रेलर एक भव्य लेकिन नीरस फिल्म की आशंका जगाने लगता है.झलकियों से मिली कहानी कुछ इस तरह है कि ऋतिक रोशन नील की खेती करने वाले किसान (सरमन) की भूमिका निभा रहे हैं. यह किसान किसी और शहर/गांव से मोहनजो दारो व्यापार करने पहुंचता है. यहां पर उसे शहर से जुड़ाव का आभास होता है. यह आभास कहानी में एक रहस्य की संभावना तो जगाता है लेकिन सिर्फ इसे जानने के लिए फिल्म देखे जाने की जिज्ञासा पैदा नहीं करता. इसके साथ ही सिंधु घाटी की उस व्यवस्थित बस्ती में ऋतिक रोशन पूजा हेगड़े (चानी) से टकरा जाते हैं और दोनों के बीच प्रेम हो जाता है.

चानी के कपड़ों और उसे मिलते महत्व से लगता है वह कोई राजकुमारी या किसी नगर प्रमुख की संबंधी है. कहानी में एक खलनायक है जो इस बसे-बसाए नगर पर कब्ज़ा कर लेने की हसरत रखता है या फिर इसे उजाड़ देना चाहता है. यह भूमिका कबीर बेदी निभा रहे हैं. शहर के प्रति नायक का प्रेम और खलनायक की महत्वकांक्षा टकराती है. फिर कुछ मारधाड़ और कहानी ख़त्म! ट्रेलर से लब्बोलुआब समझें तो यह फिल्म प्राचीन समय की नई कहानी कहने के बजाय एक पुरानी और घिसी-पिटी कहानी कहने जा रही है
अगर बैकग्राउंड को छोड़ दिया जाए तो एक्शन करते हुए ऋतिक रोशन आपको कृष जैसे लग सकते हैं और अभिनय करते हुए तो वे ऋतिक रोशन ही लगते हैं. उनकी संवाद अदायगी पिछली फिल्मों से बिलकुल भी अलग नहीं है. इसमें भी सबसे बुरी बात यह है कि वे कहीं से भी भारतीय दिखाई नहीं देते. फिल्म में ऋतिक को करने के लिए बहुत कुछ हो सकता है लेकिन ट्रेलर में वे चुके हुए से लग रहे हैं.
विलेन की भूमिका में कबीर बेदी विश्वसनीय नहीं लग रहे हैं. ट्रेलर के कुछ दृश्यों में वे डर पैदा कर रहे हैं लेकिन यहां भी अभिनय से ज्यादा उनकी आवाज की भूमिका है. पूजा हेगड़े खूबसूरत दिख रही हैं मगर सिर्फ उतनी जितनी विक्टोरिया सीक्रेट की मॉडल्स लग सकती हैं. ट्रेलर में उनकी उपस्थिति फिल्म के लिए भी कोई संभावना नहीं जगाती. फिल्म में कुछ और चेहरे हैं जैसे नफीसा अली, अरुणोदय सिंह, किशोरी शहाणे. फिल्म में ये चेहरे ठीक-ठाक अभिनय करते दिख सकते हैं.
आशुतोष गोवारिकर इतिहास के ऐसे किस्से पहले भी पेश कर चुके हैं. इस बार जिस टाइम पीरियड को उन्होंने छुआ है वह ‘भारत एक खोज’ के बाद स्क्रीन पर नहीं दिखाया गया है. इस लिहाज से उनके पास अपने तरीके से फिल्म रचने की गुंजाइश ज्यादा थी हालांकि फिल्म का माहौल जोधा-अकबर की और कॉस्ट्यूम लगान की याद दिलाते हैं.

ट्रेलर से यह भी साफ होता है कि गोवारिकर ने सिंधु घाटी से जुड़े प्रचलित प्रतीकों का फिल्म में जमकर उपयोग किया है. अस्त्र-शस्त्र, भित्तिचित्र से लेकर नायिका का ताज तक सब कुछ इतिहास प्रेरित होकर बनाया गया है. इतिहास का ऐसा इस्तेमाल गोवारिकर ने अपनी पहली पीरियड फिल्म, लगान में भी किया था लेकिन यह ट्रेलर लगान जैसी काल्पनिक लेकिन रोचक और दिल को छू लेने वाली कहानी दिखाने का भरोसा नहीं जगा पाता. फिल्म की कथा काल्पनिक लगने के बजाय यह कालखंड ज्यादा काल्पनिक लगता है. यह शायद इसलिए कि कहानी तो हमने बार-बार देखी है बस वह वक्त नहीं देखा.



ट्रेलर की शुरुआत में जहां मोहनजो दारो में नगर के उद्धारक की एंट्री है वहीं आखिर में प्रलय के दृश्य हैं. ये दोनों दृश्य भ्रमित करते हैं. पहला दृश्य कहता है कि यह सभ्यता के बीच के किसी हिस्से की कहानी है. अंतिम दृश्य कहता है यह सभ्यता के अंत की कहानी है. पहला दृश्य फिल्म के निर्माण की वजह है लेकिन यह अंतिम दृश्य ट्रेलर में क्यों रखा गया है यह 12 अगस्त को फिल्म देखकर ही पता चलेगा.

Tuesday 19 April 2016

क्रन्तिकारी

ट्वीटर, फेसबुक और व्हाट्सएप अपने प्रचंण्ड क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है। हर नौसिखीया क्रांति करना चाहता है। कोई बेडरूम में लेटे-लेटे गौ-हत्या करने वालों को सबक सिखाने की बातें कर रहा है तो किसी के इरादे सोफे पर बैठे बैठे महंगाई, बेरोजगारी या बांग्लादेशियों को उखाड़ फेंकने के हो रहे हैं।
हफ्ते में एक दिन नहाने वाले लोग स्वच्छता अभियान की खिलाफत और समर्थन कर रहे हैं। अपने बिस्तर से उठकर एक गिलास पानी लेने पर नोबेल पुरस्कार की उम्मीद रखने वाले बता रहे हैं कि माँ-बाप की सेवा कैसे करनी चाहिए।
जिन्होंने आज तक बचपन में कंचे तक नहीं जीते वह बता रहे हैं कि भारत रत्न किसे मिलना चाहिये।
जिन्हें गली क्रिकेट में इसी शर्त पर खिलाया जाता था कि बॉल कोई भी मारे पर अगर नाली में गई तो निकालना तुझे ही पड़ेगा वो आज कोहली को समझाते पाए जायेंगे कि उसे कैसे खेलना है।
देश में महिलाओं की कम जनसंख्या को देखते हुए उन्होंने नकली ID बनाकर जनसंख्या को बराबर कर दिया है।
जिन्हें यह तक नहीं पता कि हुमायूं, बाबर का कौन था वह आज बता रहे हैं कि किसने कितनों को काटा था।
कुछ दिन भर शायरियां पेलेंगे जैसे 'गालिब' के असली उस्ताद तो यहीं बैठे हैं।
जो नौजवान एक बाल तोड़ हो जाने पर रो-रो कर पूरे मोहल्ले में हल्ला मचा देते हैं, वे देश के लिए सिर कटा लेने की बात करते दिखेंगे।
किसी भी पार्टी का समर्थक होने में समस्या यह है कि भाजपा समर्थक को अंधभक्त, आप समर्थक उल्लू, तथा कांग्रेस समर्थक बेरोजगार करार दे दिये जाते हैं।
कॉपी पेस्ट करने वालों के तो कहने ही क्या। किसी की भी पोस्ट चेप कर ऐसे व्यवहार करेंगे जैसे साहित्य की गंगा उसके घर से ही बहती है और वो भी 'अवश्य पढ़ें' तथा 'मार्केट में नया है' की सूचना के साथ।
एक कप दूध पी लें तो दस्त लग जाए ऐसे लोग हेल्थ की टिप दिए जा रहे हैं लेकिन समाज के असली जिम्मेदार नागरिक हैं।
टैगिये... इन्हें ऐसा लगता है कि जब तक ये गुड मॉर्निंग वाले पोस्ट पर टैग नहीं करेंगे तब तक लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि सुबह हो चुकी है।
जिनकी वजह से शादियों में गुलाब जामुन वाले स्टॉल पर एक आदमी खड़ा रखना जरूरी है वो आम बजट पर टिप्पणी करते हुए पाये जाते हैं।
कॉकरोच देख कर चिल्लाते हुये दस किलोमीटर तक भागने वाले पाकिस्तान को धमका रहे होते हैं कि "अब भी वक्त है सुधर जाओ"।
क्या वक्त आ गया है वाकई। धन्य है व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्वीटर युग के क्रांतिकारी।

Friday 15 April 2016

मै और मेरा कैरियर ना मै तुम्हे समझा पाया ना तुम मुझे समझा पाये |

कैरियर के झूठ के कितने रूप हैं..
हम कितने झूठ अपने आप से बोलते हैं.. कभी गिनती नहीं होती
क्या 12वी के बाद जो करियर हमने चुने वो हमारी अपनी मर्ज़ी से थे..
खुशकिस्मत रहे वो जिन्हे गाइड करने वाले थे..
एवरेज मार्क्स के बाद एंटरेंस में फेल होने के बाद..
कोचिंगों के तीरथ इलाहबाद भेजे गए.
जैसे तैसे साल कटा..
और फिर एंटरेंस में फेल हुए..
जो पास हुए थे उनके फोटो अख़बारों में छपे..
जो क्वालीफाई नहीं कर पाये उन्हें उनके हाल पे छोड़ दिया गया. उनमे मै भी था .
लेकिन जस्ट बिकॉज़ सोशल स्टेटस मेंटेन करना था..
तो एडमिशन भी हो गया..कुकुरमुत्तों की तरह उग आये मैनेजमेंट के  कॉलेजों में..
जैसे तैसे पास हुए ..और स्किल के नाम पे "अंग्रेजी गाने सुनना" और कुछ हॉलीवुड फिल्मों के नाम भी याद हो गए..
दिमाग में चढ़ी धुंध में सपने और भी धुंधले होते गए..
कंपनियां कब आई कब चली गयी किसको लेके गईं कुछ पता नहीं चला..
जिनके प्लेसमेंट हुए उन्होंने कॉर्पोरेट प्रोफेशनल, MNC वर्ल्ड जैसी कम्युनिटी ज्वाइन कर लीं ऑरकुट पे.
और बाकी की हिम्मत नहीं हुई कॉलेज के बाद घर लौटने की.उनमे मै भी था .
ऑफ कैंपस इंटरव्यू की तैयारी के नाम पे ट्विन शेयरिंग से..4 लोगों के साथ कमरा शेयर करने के हालात बन गए थे ..
और 5 - 6 महीने इधर उधर के दोस्तों..दोस्तों के बड़े भाइयों को रिज्यूमे भेज भेज के दिन बीतने के साथ और उदासी में डूबता गया ..
फिर जैसे तैसे साल भर के गैप के बाद एक नौकरी मिली..परिवार मै सभी खुस थे जैसे बेटे ने नोबल जीता हो | शायद हाँ नोबल ही तो, बड़ी डिग्री लेने के बाद अगर  आप कोई नौकरी ढूड ले तो वो किसी नोबल से कम तो नहीं है |
मै अपने आप पे खूब इतराया  कि बिना जुगाड़ के प्योर अपने दम पे तुम्हे नौकरी मिली है..
उस रात मैंने  गाने सुने उस पूरी रात और गाया "यहां के हम सिकंदर"..
अब मै खुश हो चूका हूँ ..और ऑरकुट के अलावा अब फेसबुक भी आ गया हूँ ..
अपने ऑफर लेटर की स्कैन कॉपी मैने  डाली फेसबुक पे सैलरी छिपा के..
और टैग किया उन सभी दोस्तों को जो ऑन कैंपस में मुझ से जीते थे और जीते थे कम्पटीशन की तैयारी में..
अब मुझे लगता है मै उनकी लीग में आ चुका हूँ ..
पर मै मन ही मन जानता था ..
कि इस तनख्वाह में भी मै ट्विन शेयरिंग का रूम भी बमुश्किल अफोर्ड कर पाउँगा..
और खायेंगे  २० रुपये पर प्लेट मिलने वाला खाना सड़क किनारे लगने वाली ठेल से..
मै अंदर ही अंदर अब भी श्योर नहीं था..
मै कहीं न कहीं जानता था ..
कि ये कांच की बिल्डिंग धोखा है..
जहां पहले दिन मुझे  बताया गया..
कि वी आर लीडर इन देट..पायनियर इन देट..
रेवेन्यू इतना बिलियन..एक्सिस्ट इन 20 कंट्रीज..
लेकिन मै जनता था अपनी हकीकत- इन हैंड 8000 पर मंथ है..
मै समझने लगा हूँ  कि मै उस लड़ाई को अब तक लड़ता आया हूँ  जो मेरे लिए थी ही नहीं..
पर यहां से लौट पाना अब मुश्किल है..
कई बार बेवजह की लड़ाइयों में हम इतने उलझ जाते हैं कि खुद को भूल जाते हैं..
और अब मेरे  साथ भी वही होगा जो कैब में बैठे 35 की उम्र में 55 के लगने वाले..
जोशी सर के साथ हुआ होगा..
ये कहानी हम सबकी है..ये हार हम सबकी है..
बस कोशिश रहे कि हम अपने सामने किसी और को ऐसे न हारने दें..
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